न्यूज डेस्क, अमर उजाला, पटना Published by: आदित्य आनंद Updated Tue, 15 Aug 2023 06:55 PM IST
सार
Bihar News : दुनिया के पहले लोकतंत्र वैशाली की यह कहानी सचमुच प्रेरणादायी है। पद्म विभूषण डॉ. बिंदेश्वर पाठक को लेकर यहां किवदंतियां हैं, कहावतें हैं, कहानियां हैं। डॉ. पाठक की शुरुआती कहानी उनके घर-ससुराल से जानना बेहद रोचक है।
मंगलवार को जब दिल्ली से खबर उड़ी कि पद्म भूषण डॉ. बिंदेश्वर पाठक नहीं रहे तो दुनिया के पहले लोकतंत्र वैशाली की धरती को सबसे जोर का झटका लगा। डॉ. बिंदेश्वर पाठक को लेकर यहां ढेरों कहानियां हैं। उनके एहसान से दबे लोगों की संख्या गिनेंगे तो गिनते रह जाएंगे- कुछ ऐसी ही बात बताते हैं लोग। जितने मुंह, उतनी बातें। कुछ की नजर में बुरी, बहुत के मुंह से बहुत अच्छी बातें। उन्हीं अच्छी बातों के दरम्यान एक किस्सा डॉ. बिंदेश्वर पाठक के ससुर का निकलता है। आइए, वह कहानी जानें।
घर और ससुराल दोनों करीब, इसलिए भी कहानियां
सबसे रोचक कहानी डॉ. बिंदेश्वर पाठक के ससुर स्व. हरिश्चंद्र झा से जुड़ी है। वैशाली में महनार रोड स्टेशन के पास स्थित चमरहरा गांव में डॉ. पाठक की शादी स्व. हरिश्चंद्र झा की बेटी अमला से हुई थी। अमला चमरहरा के ही मिड्ल स्कूल की छात्रा थीं तो जब वैशाली के ही जंदाहा निवासी डॉ. पाठक से उनकी शादी हुई तो कई वर्षों तक हरिश्चंद्र झा की समझ में ही नहीं आता था कि उनके दामाद असल में करते क्या हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि देखकर तब शादियां हुआ करती थीं। हरिश्चंद्र झा अक्सर स्कूल के शिक्षकों और गांव के समृद्ध लोगों के बीच उठते-बैठते अपना दर्द कहते थे- “दामाद में हम ठगा गइली।” वजह यह भी थी कि तब डॉ. पाठक सहकारिता आंदोलन के अग्रणी नेता दीप नारायण सिंह और भागदेव सिंह योगी के सानिध्य में रहकर भंगी मुक्ति आंदोलन में जुड़ गए थे। एक रूढ़ीवादी ब्राह्मण परिवार से लाए दामाद को इस तरह देख ससुर का पछताना वर्षों चला। वही ससुर बाद के दौर में गौरवान्वित होते थे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसी शख्सियत डॉ. पाठक को मानते-जानते हैं।
मदद के लिए बिहारी या जरूरतमंद होना काफी था
डॉ. बिंदेश्वर पाठक फायदा उठाने वाले कई लोगों से बाद के दौर में घिरे। इसमें कुछ पारिवारिक विवाद से जुड़े कारण थे। वैशाली के लोग उन विवादों को उनसे जोड़कर देखना नहीं चाहते। कहते हैं- “कोई संगीत जानता हो तो डॉ. पाठक उसे उसी में आगे बढ़ाने के लिए मदद करते। कोई पढ़ने में अच्छा हो तो उसे कई बार सीमाएं छोड़कर मदद करते। महनार के किसी भी प्रतिष्ठित शख्स की एक लाइन की चिट्ठी सुलभ इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन की नौकरी के लिए काफी होती थी। बिहारी या जरूरतमंद होना उनकी मदद पाने का इतना आसान तरीका बन गया कि हजारों लोग उनकी संस्था में जुड़ते गए। डॉ. पाठक के कारण कितने लोगों ने जीवन में पहली बार या इकलौती बार हवाई जहाज की यात्रा की- ऐसी किवदंतियां आप जहां-तहां सुन सकते हैं।”